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इस्लामी देशों के नेताओं ने दोहा में एक आपातकालीन शिखर सम्मेलन बुलाया

by admin477351

ईरान और इराक उन इस्लामी राष्ट्रों में शामिल हैं जो एक एकीकृत मुसलमान सैन्य गठबंधन के गठन का आह्वान कर रहे हैं जो इज़राइल सहित दुश्मनों का मुकाबला कर सके. उनका मानना ​​है कि ‘इस्लामिक नाटो’ को एक रक्षात्मक, और आवश्यकता पड़ने पर आक्रामक सिद्धांत भी अपनाना चाहिए. इस्लामिक गठबंधन बनाने का यह खुला आह्वान ऐसे समय में आया है जब सोमवार को कतर में इस्लामिक योगदान संगठन (OIC) का एक इमरजेंसी शिखर सम्मेलन आयोजित हुआ, जो इज़राइल द्वारा कतर पर हमले के बाद हुआ था. 40 से ज़्यादा अरब और इस्लामी राष्ट्रों के नेताओं ने दोहा में एक इमरजेंसी शिखर सम्मेलन बुलाया, एजेंडा पिछले हफ़्ते क़तर की राजधानी में हमास नेताओं पर इज़राइल द्वारा किए गए हमले के बाद, उसे एकजुट उत्तर देना था. हालाँकि इस चर्चा में निंदा और अस्पष्ट वादों के अतिरिक्त कुछ ख़ास हासिल नहीं हुआ, लेकिन सदस्य राष्ट्रों के लिए नाटो-शैली के सैन्य गठबंधन के विचार का ज़ोरदार स्वागत हुआ. इस बैठक में पाक और तुर्की दोनों ने भाग लिया.

इस्लामिक नाटो
पाकिस्तान, जो एकमात्र परमाणु-सशस्त्र मुसलमान राष्ट्र है, और तुर्की, जो नाटो का एक सदस्य है और जिसने चार दिनों के छोटे युद्ध के दौरान हिंदुस्तान के ख़िलाफ़ हथियारों और सैनिकों के साथ इस्लामाबाद का समर्थन किया था, के साथ, एक अरब-इस्लामी नाटो की आसार नयी दिल्ली में कुछ बेचैनी पैदा कर सकती है. स्वघोषित उम्माह समर्थक पाक ने दोहा शिखर सम्मेलन में एक मुखर किरदार निभाते हुए, एक “अरब-इस्लामी टास्क फ़ोर्स” की ज़ोरदार वकालत की.

प्रधानमंत्री/विदेश मंत्री इशाक डार ने कहा, “इज़राइल को इस्लामी राष्ट्रों पर धावा करने और लोगों की मर्डर करने की छूट नहीं दी जानी चाहिए.” इस शिखर सम्मेलन में पाकिस्तानी पीएम शहबाज़ शरीफ़ भी शामिल हुए. पाक का यह एक्टिव रुख़ महज़ बयानबाज़ी से कहीं ज़्यादा हो सकता है, क्योंकि अरब-इस्लामिक नाटो में उसकी भागीदारी सीधे तौर पर उसकी रणनीतिक महत्वाकांक्षाओं, “रणनीतिक गहराई” की उसकी चाहत, उसकी संयुक्त देश सुरक्षा परिषद और हर संभव मंच पर कश्मीर मामले का अंतर्राष्ट्रीयकरण करने की उसकी आदतन कोशिशों से जुड़ी है. हिंदुस्तान के लिए, इस्लामाबाद के साथ एक “अरब-इस्लामिक नाटो” की आसार कुछ चिंता का विषय हो सकती है.

पाकिस्तान संयुक्त कार्यबल के लिए आक्रामक रूप से वकालत कर रहा है
दोहा में शिखर सम्मेलन के दौरान, दुनिया का एकमात्र परमाणु-सशस्त्र मुसलमान राष्ट्र, जिसके पास अनुमानित 170 परमाणु हथियार हैं, नए सैन्य गठबंधन का मुखर समर्थक बनकर उभरा. शहबाज शरीफ और इशाक डार के अगुवाई में, इस्लामाबाद ने इस कार्यक्रम को सह-प्रायोजित किया और “इज़राइली मंसूबों” पर नज़र रखने के लिए एक “अरब-इस्लामिक टास्क फोर्स” की पैरवी की. डार ने चेतावनी दी कि दुनिया के 1.8 अरब मुस्लिम एक “स्पष्ट रोडमैप” के लिए “इस शिखर सम्मेलन पर नज़र गड़ाए हुए हैं”.

शरीफ ने एक संयुक्त अरब-इस्लामिक बल के आह्वान को दोहराते हुए, सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान को संयुक्त देश सुरक्षा परिषद में पाक के 2026 तक अस्थायी सदस्य बने रहने के लिए समर्थन का आश्वासन दिया. अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो के सदस्य, तुर्की ने इज़राइल विरोधी स्वर को और तेज़ किया, लेकिन बीच में ही रुककर यहूदी राज्य पर आर्थिक दबाव बनाने का आह्वान किया. राष्ट्रपति रेचेप तैयप एर्दोगन ने इज़राइल के हमलों को संप्रभुता पर एक “लालची, खूनी” धावा करार दिया.

इस्लामिक-अरब नाटो में पाक और हिंदुस्तान के लिए निहितार्थ
लेकिन हिंदुस्तान के लिए, इसके निहितार्थ गहरे और बहुआयामी हो सकते हैं. पाक ने लंबे समय से बहुपक्षीय गठबंधनों और मंचों का फायदा उठाया है, अरब फंडिंग और तकनीक का इस्तेमाल अपने आर्थिक संकट के दौरान किया है, और ओआईसी शिखर सम्मेलनों जैसे मंचों पर कश्मीर का अंतर्राष्ट्रीयकरण किया है. दोहा वार्ता में एक और सदस्य तुर्की था. अंकारा कश्मीर पर पाक के बयान को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रहा है, और एक परमाणु-सक्षम इस्लामी सैन्य गठबंधन दक्षिण एशियाई तनाव को बढ़ा सकता है. हिंदुस्तान कश्मीर पर एर्दोगन के रुख की आलोचना करता रहा है.

मई में चार दिनों के छोटे युद्ध के दौरान भी, अंकारा ने न सिर्फ़ सैन्य उपकरण साझा किए, बल्कि हिंदुस्तान के विरुद्ध पाक में अपने कर्मियों और तकनीशियनों को भी भेजा. नाटो जैसे सुरक्षा समझौते में, जहाँ एक सदस्य पर धावा सभी पर धावा माना जाता है, और सैन्य प्रतिक्रियाएँ समन्वित होती हैं, ऐसा गठबंधन स्वाभाविक रूप से हिंदुस्तान को असहज कर सकता है, खासकर जब पाक और तुर्की दोनों इसका हिस्सा हों. यदि यह समूह नाटो की तर्ज पर बनाया जाता है, जहाँ एक पर धावा सभी सदस्यों पर धावा माना जाता है, तो पाक का हौसला बढ़ सकता है. इससे इस्लामाबाद को हिंदुस्तान विरोधी गतिविधियों के लिए एक और बहुपक्षीय मंच मिल सकता है.

इसके अलावा, नयी दिल्ली के इज़राइल के साथ संबंध, जो रक्षा (वार्षिक हथियार आयात में 2 अरब $ से अधिक) और ऊर्जा तक फैले हैं, उसे शिखर सम्मेलन के इज़राइल-विरोधी रुख के उल्टा ला सकते हैं. यह तब है जब हिंदुस्तान ने फ़िलिस्तीन-इज़राइल मामले पर एक संतुलित रुख अपनाया है और हाल ही में संयुक्त देश महासभा में एक फ़िलिस्तीनी देश के लिए मतदान किया है.

हालाँकि, अभी तक, “अरब नाटो” मुख्य रूप से इज़राइल के खिलाफ है, जबकि सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और मिस्र जैसे संभावित सदस्य हिंदुस्तान के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए हुए हैं. और इन सैन्य बलों की सक्रियता को लेकर चर्चा हिंदुस्तान पर नहीं, बल्कि इज़राइल पर केंद्रित है. पाक और तुर्की के सदस्य होने के साथ ये गतिशीलता कैसे सामने आती है, यह देखना जरूरी होगा.

संक्षेप में, जबकि “अरब नाटो” अभी भी नवजात है, पाक की किरदार हिंदुस्तान को कुछ रणनीतिक बेचैनी दे सकती है. हालाँकि, यदि ऐसा कोई समूह कभी वास्तविकता बनता है, तो हिंदुस्तान को प्रमुख क्षेत्रीय खिलाड़ियों का ठोस समर्थन प्राप्त है. दोहा शिखर सम्मेलन के बाद जैसे-जैसे धूल जमती है, वास्तविक परीक्षा सैन्य गठबंधन को मजबूत करने में है, जिसमें देश आपस में झगड़ते रहते हैं.

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