ब्रिटेन में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का जो स्वागत किया गया, उसने एक बार फिर यह प्रश्न खड़ा कर दिया कि आधुनिक लोकतंत्रों में शाही तामझाम की स्थान क्या है. विंडसर कैसल का भ्रमण, अश्व-रथ की सवारी और सेंट जॉर्ज हॉल में आयोजित भव्य राजकीय भोज, यह सब किसी बीते युग की झलक जैसा लग रहा था न कि 21वीं सदी की लोकतांत्रिक मर्यादा.
हम आपको बता दें कि ब्रिटिश राजपरिवार ने जिस तरह ट्रंप को “राजसी अतिथि” की तरह संतुष्ट करने की प्रयास की, उसका सियासी और आर्थिक गणित साफ़ था. ब्रिटेन ब्रेक्ज़िट के बाद लगातार आर्थिक सुस्ती झेल रहा है और विश्व अर्थव्यवस्था में उसकी हैसियत धीरे-धीरे पीछे खिसक रही है. कभी उपनिवेश साम्राज्य के बल पर विश्व की धुरी रहा यह द्वीप अब छठे जगह तक फिसल चुका है और हिंदुस्तान उसे पीछे छोड़ चुका है. ऐसे में अमेरिकी निवेश की 204 अरब $ की सौगात ने ब्रिटिश नेतृत्व को विवश किया कि वह ट्रंप के सामने शाही वैभव का पूरा प्रदर्शन करे.
हालाँकि, यह ध्यान रखना चाहिए कि यह राशि अभी सिर्फ़ “वादा” है, वास्तविकता में इसे अमली जामा पहनाना ब्रिटेन के लिए आसान नहीं होगा. परंतु इतना तो निश्चित है कि इस शाही प्रदर्शन से ब्रिटेन ने ट्रंप जैसे नेता के अहंकार को संतुष्ट किया और कुछ समय के लिए अपनी अंतर्राष्ट्रीय छवि को चमकाया.
लेकिन यहां यह प्रश्न प्रासंगिक है कि क्या लोकतंत्रों को अब भी इस तरह के शाही दिखावे की आवश्यकता है? द्वितीय विश्वयुद्ध और साम्राज्यवाद की समापन को आठ दशक हो चुके हैं. लोकतांत्रिक मूल्यों के परिपक्व होने के बावजूद, ब्रिटेन जैसे राष्ट्र अब भी औपचारिक तामझाम में उलझे दिखाई देते हैं. असल में यह आकर्षण सिर्फ़ प्रतीकों तक सीमित नहीं है; यह उस मानसिकता को भी दर्शाता है जिसमें सत्ता का वैभव जनता के बीच दूरी और श्रेष्ठता की दीवार खड़ी करता है.
इतिहास इस बात का गवाह है कि सादगी में भी अपार शक्ति होती है. 1931 में जब महात्मा गांधी सिर्फ़ धोती और चादर में बकिंघम पैलेस पहुँचे थे तो चर्चिल ने उन्हें “आधा नंगा फ़कीर” कहकर उपहास उड़ाया था. लेकिन दुनिया ने देखा कि इसी प्रतीकात्मक सादगी ने साम्राज्यवादी सोच को चुनौती दी थी. यही नहीं, रोमन सम्राट मार्कस ऑरेलियस ने भी अपने समय में बाहरी आडंबर के प्रति सावधान किया था.
देखा जाये तो लोकतंत्र का मूल रेट यही है कि नेता जनता के बीच से आता है और उसी का प्रतिनिधि होता है. यदि नेता अपने को शाही तामझाम के सहारे ऊँचा दिखाने लगे तो यह लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ विश्वासघात है. शाही परंपराएँ इस विचार को पोषित करती हैं कि शासक अपने नागरिकों से अलग और ऊँचे दर्जे का होता है. घोड़े, हाथी, तोपों की सलामी या दरबारी ठाठ, ये सब लोकतंत्र में अप्रासंगिक प्रतीक होने चाहिए, न कि गर्व का विषय. आज के दौर में जब वैश्विक राजनीति समानता, साझेदारी और पारदर्शिता पर ज़ोर देती है, तब ब्रिटेन का यह वैभव प्रदर्शन लोकतंत्र की सादगी और आत्मनिर्भरता की भावना से दूर जाता है. गांधी का आदर्श यही संदेश देता है कि सादगी ही वास्तविक शक्ति है.
ऐसा लगता है कि ब्रिटेन के लिए यह सच स्वीकार करना मुश्किल है कि उपनिवेशों के बिना वह अब एक साधारण द्वीप देश है, जिसकी ताक़त उसके नागरिकों और संस्थाओं में है, न कि राजसी ठाठ में. ट्रंप को खुश करने के लिए किए गए आयोजन क्षणिक रिज़ल्ट ला सकते हैं, लेकिन दीर्घकालिक दृष्टि से यह लोकतांत्रिक आदर्शों को कमजोर करते हैं. लोकतंत्रों को अब यह समझ लेना चाहिए कि वास्तविक गरिमा सादगी, पारदर्शिता और जन-समानता में है. 80 साल पहले महात्मा गांधी ने यह राह दिखा दी थी. प्रश्न यह है कि क्या बाकी दुनिया अब भी उस मार्ग को अपनाने के लिए तैयार है, या फिर पुरानी परंपराओं की जकड़ में रहकर सिर्फ़ दिखावे की राजनीति करती रहेगी.
बहरहाल, ब्रिटेन ने डोनाल्ड ट्रंप का जिस अंदाज़ में स्वागत किया, उससे भविष्य में एक परेशानी भी खड़ी हो सकती है. ट्रंप को शाही सम्मान देकर ब्रिटेन ने अमेरिकी राष्ट्रपति के सियासी अहंकार को और पोषित कर दिया है. ट्रंप पहले ही स्वयं को विश्व का सम्राट समझते हैं, लंदन में हुए शाही स्वागत के बाद उनके मन में यह भावना और प्रबल हो सकती है. ऐसे में अब जो राष्ट्र उनकी बात नहीं सुनेगा उसके विरुद्ध वह तानाशाह सम्राट की भावना से ओतप्रोत होकर कोई कदम उठा सकते हैं.